राष्ट्रीय एकात्मकता: लोक, संस्कृति, सहज बोध पर कोलकाता में दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न

दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी “राष्ट्रीय एकात्मकताः लोक, संस्कृति और सहज बोध” में लोक-साहित्य, भाषा-विमर्श और सांस्कृतिक स्मृति के माध्यम से राष्ट्रीय एकता की जड़ों को समझने का प्रयास किया गया। अनेक विद्वानों ने लोकगीतों, कथाओं, नृत्य-परंपराओं, मिथकों, ग्रामीण स्त्री की भूमिका, मौखिक परंपरा, भाषा-नीति और आध्यात्मिक लोक-चेतना के माध्यम से यह स्थापित किया कि भारत की एकता विविधता में बसी है, और लोक-संस्कृति उसकी असली संरक्षिका है।

Dec 8, 2025 - 06:36
Dec 8, 2025 - 10:58
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राष्ट्रीय एकात्मकता: लोक, संस्कृति, सहज बोध पर कोलकाता में दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न
राष्ट्रीय संगोष्ठी के तृतीय अकादमिक सत्र में मंचासीन विद्वतगण

लोक, संस्कृत, साहित्य, भाषा-चेतना और सहज बोध पर गहन विमर्श; पूर्वांचल से नार्थ, ईस्ट, साउथ तक के लोक-परंपरा के उदाहरणों से समृद्ध सत्र

कोलकाता, 6 दिसंबर 2025। केंद्रीय हिंदी निदेशालय, नई दिल्ली और महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, क्षेत्रीय केंद्र कोलकाता द्वारा आयोजित दो-दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का तृतीय और चतुर्थ सत्र 6 दिसंबर को लोक साहित्य, राष्ट्रीय एकात्मकता और भाषा-विमर्श पर केंद्रित रहा। सत्रों में देशभर के प्रतिष्ठित विद्वानों, प्राध्यापकों, साहित्यकारों ने लोक अनुभव, सांस्कृतिक स्मृति, भाषाई विविधता, लोकगीत, लोक कथाओं की वैचारिक शक्ति, सहज बोध और राष्ट्रीय एकता पर विस्तृत विचार रखे।

तृतीय अकादमिक सत्र : राष्ट्रीय एकात्मकता और लोक साहित्य

सहायक प्राध्यापक पूजा गुप्ता ने अपने वक्तव्य में कहा कि लोक साहित्य समुदाय की सामूहिक स्मृतियों का संचय है, जो विविधता के बावजूद संघर्ष के बजाय सह-अस्तित्व का भाव उत्पन्न करती है। लोक परंपरा हमें सह-अस्तित्व, सामूहिकता और अनुभूति का भाव-तंतु देती है।

स्कॉटिश चर्च कॉलेज की प्राध्यापक डॉ. गीता दुबे ने लोक-गीतों के सामाजिक अर्थ पर बोलते हुए कहा, लोक साहित्य में सत्ता और प्रजा दोनों के लिए अलग दृष्टि होती है। डॉ. दुबे ने लोक-साहित्य के सामाजिक, सांस्कृतिक कार्यों को रेखांकित करते हुए कहा, लोक-साहित्य कभी भी ‘शिष्ट-साहित्य’ की अपेक्षा कमतर नहीं, बल्कि अधिक जीवंत है। लोकगीत, लोककथाएँ, आल्हा-ऊदल, अवधी गीत, कथा-वाचन सभी में सामूहिकता का गहरा तत्व है, जो लोगों को जोड़ता है। राष्ट्रीय एकता लोकगीतों में प्रत्यक्ष दिखाई देती है। गांधी और आज़ादी के गीत, ग्रामीणों की सामूहिक हुंकार (‘हूँकारी’), गौरैया-चना कथा, सीता–यज्ञ संवाद, ग्रामीण स्त्री की लोक-कथा परंपरा आदि उदाहरणों से बताया कि लोक-साहित्य शोषित, वंचित और साधारण जनता की आवाज़ है।

प्रो. पुष्पा बरनवाल ने भारतीय सभ्यता की जड़ों से लेकर आधुनिकता तक का विशाल कैनवस प्रस्तुत करते हुए कहा कि मेहरगढ़ (7000 ई.पू.), हड़प्पा, वैदिक काल, तमिल, नागालैंड, मेघालय, असम हर क्षेत्र में लोक परंपरा एक ही सांस्कृतिक जीवंतता दिखाती है। छोऊ नृत्य, तमाशा, कीर्तन, अंकि‍या-नाट, भवाई सबमें भारत का एकात्म सौंदर्य मौजूद है। उन्होंने कहा, लोक में निरंतरता है इसी में राष्ट्र की सांस्कृतिक नींव सुरक्षित है।”

पूर्व पुलिस महानिदेशक, पश्चिम बंगाल, गीतकार व साहित्यकार मृत्युंजय कुमार सिंह ने कहा कि जब एकात्मकता पर बात बढ़े तो समझिए क्षरण शुरू है। जब-जब ‘एकात्मकता’ शब्द पर ज़ोर बढ़ता है, समझिए एकता में कहीं क्षरण शुरू हुआ है। लोक परंपरा हमारी आध्यात्मिक शक्ति है, वेद से भोजपुरी तक लोक–परंपरा ही रीढ़ है। उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा,तुलसी, कबीर, विद्यापति सबने लोकभाषा चुनी, क्योंकि राष्ट्र की असली चेतना लोक में है।” उन्होंने अंत में लोक-संवेदना पर आधारित पंक्तियाँ सुनाईं, जिससे सभागार भावविभोर हुआ।

सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रो. आर. शशिधरन ने दक्षिण भारत के लोक गीतों की प्रस्तुति के माध्यम से बताया कि हमारे लोक में दुनिया की भलाई का आह्वान है। इसमें संवेदना का भाव है। हम इन गीतों, भावों से बचपन से संवेदित होते हुए बड़े हुए हैं।

संगोष्ठी के दौरान केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा निर्मित विशेष वीडियो तथा महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा तैयार ‘गीताई मंदिर’ विषयक डॉक्यूमेंटरी प्रस्तुति भी प्रदर्शित की गई, जिसने प्रतिभागियों को संस्थाओं की शैक्षिक, सांस्कृतिक तथा वैचारिक पहलों से रू-ब-रू कराया।

सत्र में ब्रजेश प्रसाद और अजय पोद्दार ने अपने-अपने शोध पत्र प्रस्तुत किए, जिनमें विषय के विविध अकादमिक आयामों पर सारगर्भित विश्लेषण रखा गया।

सत्र का संचालन महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, क्षेत्रीय केंद्र कोलकाता के सहायक प्राध्यापक डॉ. अभिलाष कुमार गोंड ने किया, जबकि क्षेत्रीय प्रभारी डॉ. अमित राय ने धन्यवाद-ज्ञापन प्रस्तुत किया।

यह सत्र वास्तव में पूरे आयोजन की आत्मा सिद्ध हुआ, क्योंकि वक्ताओं ने लोक साहित्य को ‘राष्ट्रीय एकता की नैसर्गिक भूमि' बताया।

चतुर्थ अकादमिक सत्र : राष्ट्रीय एकात्मकता और भाषा-विमर्श

डॉ. विनय मिश्र ने कहा, भाषा राष्ट्रीय चेतना को अभिव्यक्त करने का साधन है। उन्होंने 4 प्रस्थान बिंदुओं के माध्यम से संकेत दिया कि बहुभाषिक देश में एक साझी भाषा हिंदी राष्ट्रीय संप्रेषण को सहज बनाती है। डॉ. मिश्र ने अपने वक्तव्य में कुछ प्रश्न खड़े किए, क्या संस्कृत, हिंदी, अंग्रेजी व अन्य राष्ट्रीय भाषाओं को हम राष्ट्रीय एकात्मकता की भाषा माने या न माने? आगे उन्होंने इस प्रश्न के आलोक में विस्तार से अपने विचारों के माध्यम से राह भी दिखाई।   

प्रो. नीरज शर्मा ने अपने उद्बोधन में कहा कि “हिंदी राष्ट्रीय एकता का प्रमुख आधार है। राष्ट्रीय एकात्मकता का अर्थ है- देश के सभी नागरिकों में समान पहचान की चेतना। भारत भाषा, जाति, धर्म, क्षेत्र सबमें विविध है, पर हिंदी वह भाषा है जो पूरे देश को जोड़ने की क्षमता रखती है। अंग्रेज भी यही समझ चुके थे कि हिंदुस्तान पर शासन के लिए हिंदी से बेहतर कोई माध्यम नहीं।”

कोलकाता के वरिष्ठ विचारक व समीक्षक मृत्युंजय श्रीवास्तव ने कहा कि राष्ट्रीय एकात्मकता हमें धर्म और आध्यात्मिकता का शब्द प्रतीत होता है, पर यह बहुत राजनीतिक शब्द है। इसी के आलोक में उन्होंने अपना विश्लेषणात्मक व्याख्यान दिया और आगाह किया कि यदि हम, तुम और दुनिया को बचाना चाहते हैं तो हमें एकात्मकता से बचने की जरूरत है।   

विश्व भारती, शांतिनिकेतन के प्राध्यापक डॉ. जगदीश भगत अपने उद्बोधन में कहते हैं कि रबीन्द्रनाथ टैगोर का सारा साहित्य लोक पर ही आधारित है। यह लोक की शक्ति ही है जो रबीन्द्रनाथ टैगोर और महात्मा गांधी को संवृद्ध करती है और वैश्विक बनाती है।

अध्यक्षीय वक्तव्य रखते हुए समकालीन प्रसिद्ध आलोचक व पश्चिम बंगाल राज्य विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. अरुण होता ने राष्ट्रीय एकात्मकता और भाषा विमर्श पर चर्चा करते हुए कहते हैं कि जब समाज विकृत होता है तो भाषा भी विकृत हो जाती है । आज की हमारी भाषा बहुत हिंसक हो गई है । इस पर हमें गहराई से सोचने और विचार करने की जरूरत है । भाषा कर मर जाना जाति, संस्कृति, लोक का मर जाना है। भाषा और साहित्य हमें आपस में मिलाते हैं । उन्होंने कहा कि भारत में भाषाई विविधता ‘विभाजन’ नहीं, बल्कि समानता के भीतर भिन्नता का उत्सव है। हमें भाषा-विमर्श में केवल हिंदी या अंग्रेज़ी नहीं, बल्कि भारत की समस्त भाषाओं की पारस्परिकता को समझना होगा। भाषा, संस्कृति और पहचान तीनों मिलकर भारत का वह विशाल एकात्म-मानस निर्मित करते हैं जिसे राजनीतिक रूपकों से नहीं, लोक अनुभवों से समझा जा सकता है।

शोध पत्र प्रस्तुति परमजीत ने दी, जिसमें उन्होंने विषय के महत्वपूर्ण अकादमिक आयामों पर अपने विचार प्रभावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किए।

इस सत्र का संचालन महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के ‘गांधी व शांति अध्ययन’ के विद्यार्थी सुशील कुमार पाण्डेय ने और धन्यवाद ज्ञापन डॉ. अभिलाष कुमार गोंड द्वारा किया गया। समापन सत्र में सर्वप्रथम महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की विद्यार्थी अपर्णा सिंह ने प्रतिवेदन प्रस्तुत किया।

समापन सत्र में विशिष्ट अतिथि व मुक्तांचल पत्रिका की सुप्रसिद्ध संपादक प्रो. मीरा सिन्हा ने अपने विचारोत्तेजक उद्बोधन में कहा कि आज के समय में विचारों की निर्भीक अभिव्यक्ति और मानवीय संवेदना की जीवंत उपस्थिति पहले से कहीं अधिक अनिवार्य हो गई है। उन्होंने मर्मस्पर्शी स्वर में संकेत किया कि “आज का लोक धीरे-धीरे संवेदनहीन होता जा रहा है; हमारा सामूहिक मन जैसे किसी अदृश्य विरक्ति का शिकार हो रहा है। ऐसे समय में संवेदना की लौ बुझने न पाए, इस पर गंभीरता से विचार होना चाहिए।”

प्रो. सिन्हा ने विद्यार्थियों को विशेष रूप से संबोधित करते हुए एक गहरा और मौजूँ प्रश्न रखा, जिसने पूरे सभागार को आत्ममंथन की स्थिति में ला दिया, “यदि हम विद्यार्थी हैं, तो हमारा ‘लोक’ क्या है? वह कौन-सी मिट्टी, कौन-सी स्मृति, कौन-सा अनुभव है जिससे हम अपनी पहचान ग्रहण करते हैं?” उन्होंने कहा कि यह प्रश्न केवल अकादमिक विमर्श का हिस्सा नहीं, बल्कि आत्मबोध और सांस्कृतिक चेतना का मूल आधार है। विद्यार्थियों सहित समस्त प्रतिभागियों को उन्होंने प्रेरित किया कि वे अपने भीतर सोचने, समझने और प्रश्न उठाने की ललक को सदैव जीवित रखें, क्योंकि “मनुष्य का विकास उसकी संवेदना और जिज्ञासा के निरंतर जागरण में ही निहित है।” उनके इस विचारपूर्ण, आत्ममंथन कराते उद्बोधन ने समापन सत्र को गहरी वैचारिक ऊँचाई प्रदान की और पूरे आयोजन को एक अर्थगर्भित निष्कर्ष तक पहुँचाया।

कोलकाता विश्वविद्यालय के पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष व आलोचक प्रो. अमरनाथ ने हिरनी–कौशल्या कथा के प्रसंग के माध्यम से खजड़ी–खलरी जैसे उदाहरणों से बताया कि राजसत्ता ‘चमड़ी’ तक नहीं देती, लोक कवि इस अन्याय पर खुलकर बोलता है। लोक–गीतों के भीतर राजसत्ता और आमजन की संवेदना का अंतर कितना गहरा है। उन्होंने जोर देकर कहा कि लोक अनुभव ही सहज बोध का वास्तविक आधार है। लोकगीतों और कथाओं के बिना भारत की एकता को समझना संभव नहीं। उन्होंने लोक में स्त्री के संघर्ष, शिव–पार्वती कथा के लोक संस्करण, और ग्रामीण यथार्थ के उदाहरण देकर बताया कि “लोक की नजर आदर्श नहीं ढोती, जीवन का यथार्थ ढोती है।”

समापन सत्र का संचालन महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की सहायक प्राध्यापक डॉ. चित्रा माली ने और केंद्रीय हिंदी निदेशालय की भाषा निदेशक डॉ. नूतन पाण्डेय ने धन्यवाद ज्ञापन देते हुए कहा कि मैं इसे समाप्ति नहीं मानती, इसे आरंभ बिंदु मानती हूँ। लोक-साहित्य, संस्कृति और भाषा तीनों मिलकर राष्ट्रीय एकता का त्रिवेणी-संगम बनता है। लोक–चेतना को समझे बिना भारत की एकता को परिभाषित नहीं किया जा सकता।

वक्ताओं का स्वागत एवं सम्मान विश्वविद्यालय की छात्राओं और छात्रों इशिका, अंजलि, रिमझिम, श्रेया पाण्डेय, रवि बैठा, अमन कुमार, संजना शर्मा, ईशा साव, प्रीति, सुष्मिता, आसिया तथा अपर्णा सिंह द्वारा गरिमापूर्ण ढंग से किया गया।

कार्यक्रम की तैयारी एवं सफल आयोजन में डॉ. आलोक कुमार सिंह, राजश्री राय, सुखेन तथा रीता के सहयोग और समर्पण ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा पूरे आयोजन को सुदृढ़ आधार प्रदान किया। राष्ट्रीय संगोष्ठी में कोलकाता सहित विभिन्न राज्यों से आए अनेक विशिष्ट अतिथियों, विद्वानों और प्रतिभागियों ने सक्रिय रूप से सहभागिता की।

लोक, संस्कृति और सहज बोध से निर्मित राष्ट्रीय एकता

दो दिनों तक चले सत्रों और वक्तव्यों के आधार पर संगोष्ठी ने इस निष्कर्ष की ओर संकेत किया कि “राष्ट्रीय एकात्मकता को केवल राजनीतिक या संवैधानिक दायरे में नहीं, लोक-संस्कृति, स्मृति, भाषा और सामूहिक चेतना के संदर्भ में समझना होगा।” सहज बोध, यदि लोक के अनुभव और साधु बोध के रूप में विकसित हो, तो वह घृणा, पूर्वाग्रह और एकरूपता के दबाव से अलग एक मानवीय, लोकतांत्रिक राष्ट्र-चेतना की नींव रखता है। एकता और एकरूपता के भेद को समझे बिना राष्ट्रीय एकात्मकता की कोई भी परियोजना अधूरी और खतरनाक हो सकती है।

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